एक बालक था। नाम था उसका राम। उसके पिता बहुत बड़े पंडित थे। वह बहुत दिन जीवित नहीं रहे। उनके मरने के बाद राम की माँ अपने भाई के पास आकर रहने लगी। वह एकदम अनपढ़ थे। ऐसे ही पूजा-पाठ का ठोंग करके जीविका चलाते थे। वह झूठ बोलने से भी नहीं हिचकते थे।
वे पेशवा के राज में रहते थे। पेशवा विद्वानों का आदर करते थे। उन्हें वे दक्षिणा देते थे। वे विद्यार्थी को भी दक्षिणा देते थे। वे चाहते थे कि उनके राज में शिक्षा का प्रसार हो।
एक दिन बहुत से विद्वान पंडित और विद्यार्थी दक्षिणा लेने महल में पहुँचे। बड़े आदर से सूबेदार ने उन्हें बैठाया। उन्हीं में राम और उसके मामा भी थे। लेकिन वे न तो एक अक्षर पढ़ सकते थे और न लिख सकते थे। राम बार-बार धीरे-धीरे मामा से कहता, ''मामा ! मैं तो घर जा रहा हूँ ।''
मामा हर बार डाँट देते, ''चुप रह ! जब से आया है टर-टर किए जा रहा है।''
राम कहता, ''नहीं मामा। मैं यहाँ नहीं बैठूँगा। मैं कहाँ पढ़ता हूँ। मैं झूठ नहीं बोलूँगा।''
राम जब नहीं माना तो मामा ने किचकिचाकर कहा, ''चुप नहीं रहेगा। झूठ नहीं बोलूँगा। हूँ ऊ...। जैसे सच बोलने का ठेका तेने ही तो ले रखा है। जानता है मैं दिन भर झूठ बोलता हूँ। कितनी बार झूठ बोलकर दक्षिणा ली। तू भी तो बार-बार झूठ बोलता है। नहीं बोलता ? सब इसी तरह कहते हैं। जो ये सब यहाँ खड़ें हैं ये सब क्या पढ़े हुए हैं।''
राम ने कहना चाहा, 'पर मामा...' लेकिन मामा ने उसे बोलने ही नहीं दिया। डपटकर बोला, ''अरे खड़ा भी रह। तेरे सत्य के लिए मैं घर आती लक्ष्मी नहीं लौटाऊँगा, समझे। पूरा एक रुपया मिलेगा एक चेराशाही बस, चुप खड़ा रह। बारी आने वाली है।''
तभी पेशवा के प्रतिनिधि आ पहुँचे। उनके बैठते ही सूबेदार ने विद्वानों की मंडली से कहा, ''कृपा करके आप एक-एक करके आते जाएँ और दक्षिणा लेते जाएँ। हाँ-हाँ, आप आइए, गंगाधर जी।''
गंगाधर जी आगे आए। सूबेदार ने उनका परिचय दिया, ''जी ये हैं श्रीमान गंगाधर शास्त्री। न्याय पढ़ाते हैं।''
पेशवा के प्रतिनिध ने उन्हें प्रणाम किया। दक्षिणा देते हुए बोले, ''कृपा कर यह छोटी-सी भेंट ग्रहण कीजिए और खूब पढ़ाइए।''
शास्त्री जी ने दक्षिणा लेकर पेशवा का जय-जयकार किया और उनकी कल्याण कामना करते हुए चले गए। फिर दूसरे आए, तीसरे आए। चौथे नम्बर पर राम के मामा थे। वे जब आगे बढ़े तो सूबेदार ने उन्हें ध्यान से देखा, कहा ''मैं आपको नहीं पहचान रहा आप कहाँ पढ़ाते हैं ?''
मामा अपना रटारटाया पाठ भूल चुके थे। 'मैं' 'मैं' करने लगे। प्रतिनिधि ने बेचैन होकर पूछा, ''आपका शुभ नाम क्या है ? क्या आप पढ़ाते हैं ? बताइए न।''
लेकिन मामा क्या बतावें ? इतना ही बोल पाए, ''मैं...मैं....जी मैं...जी मैं वहाँ।''
उनको इस तरह बौखलाते हुए देखकर सब लोग हँस पड़े। पेशवा के प्रतिनिधि ने कठोर होकर कहा, ''जान पड़ता है आप पढ़े-लिखे नहीं हैं। खेद है कि आजकल कुछ लोग इतने गिर गए हैं कि झूठ बोलकर दक्षिणा लेते हैं। आप ब्राह्मण हैं। आपको झूठ बोलना शोभा नहीं देता। आपको राजकोष से दक्षिणा नहीं मिल सकती पर जो माँगने आया है उसे निराश लौटाना भी अच्छा नहीं लगता। इसलिए मैं आपको अपने पास से भीख देता हूँ। जाइए।''रचनाकार: विष्णु प्रभाकर | Vishnu Prabhakar
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